कवि कृपाराम जी द्वारा लिखित नीति सम्बन्धी राजिया रा दोहा |
आवै नही इलोळ बोलण चालण री विवध |
टीटोड़यां रा टोळ, राजंहस री राजिया ||
महान व्यक्तियों के साथ रहने मात्र से ही साधारण व्यक्तियों में महानता नही आ सकती | जैसे राजहंसों का संसर्ग पाकर भी टिटहरियों का झुण्ड हंसो की सी बोल-चाल नहीं सीख पाता |
मणिधर विष अणमाव, मोटा नह धारे मगज |
बिच्छू पंछू वणाव, राखै सिर पर राजिया ||
बड़े व्यक्ति कभी अभिमान नही किया करते | सांप में बहुत अधिक जहर होता है, फ़िर भी उसे घमंड नही होता, जबकि बिच्छू कम जहर होने पर भी अपनी पूंछ को सिर पर ऊपर उठाये रखता है |
जग में दीठौ जोय, हेक प्रगट विवहार म्हें |
काम न मौटो कोय, रोटी मोटी राजिया ||
प्रत्यक्ष व्यवहार में हमने तो इस संसार में यही देखा है, कि काम बड़ा नही होता, रोटी बड़ी होती है | हे राजिया ! सारी भागदौड ही एक जीविका के लिए होती है
कहणी जाय निकांम, आछोड़ी आणी उकत |
दांमा लोभी दांम , रन्जै न वांता राजिया ||
अच्छी-अच्छी उक्तियों के साथ कही गई सभी बाते लोभी व्यक्तियों के लिए तो निरर्थक है | सच है, धन का लोभी धन से ही प्रसन्न होता है बातों से नही |
हुनर करो हजार,सैणप चतुराई सहत |
हेत कपट विवहार, रहै न छाना राजिया ||
चाहे हजारों तरह की चालाकी और चतुराई क्यों न की जाय , किंतु हे राजिया ! प्रेम और कपट का व्यवहार छिपा नही रहता |
लह पूजा गुण लार, नर आडम्बर सूं निपट |
सिव वन्दै संसार , राख लगायाँ राजिया ||
गुण के पीछे पूजा होती है , न कि आडंबर से | हे राजिया ! भस्मी लगाये रहने पर भी शिव की वंदना सारा संसार करता है |
लछमी कर हरि लार, हर नै दध दिधौ जहर |
आडम्बर इकधार, राखै सारा राजिया ||
समुद्र ने लक्ष्मी तो विष्णु को दी और जहर महादेव को दिया | सच है आडम्बर का विशेष लिहाज सभी रखते है |
सो मूरख संसार, कपट ञिण आगळ करै |
हरि सह ञांणणहार , रोम-रोम री राजिया ||
संसार में वे व्यक्ति मुर्ख है, जो भगवान के सामने कपट व्यवहार करते है, जो रोम-रोम की सब बाते जानने वाला होता है |
औरुं अकल उपाय, कर आछी भुंडी न कर |
जग सह चाल्यो जाय, रेला की ज्यूँ राजिया ||
और भी बुद्धि लगाकर भला करने का उपाय करो, किसी का बुरा मत करो | यह संसार तो पानी के रेले की तरह निरंतर बहता चला जा रहा है ( क्षणभंगुर जीवन की सार्थकता तो सत्कर्मो से ही है ) |
औसर पाय अनेक,भावै कर भुंडी भली |
अंत समै गत एक , राव रंक री राजिया ||
जीवन में अनेक अवसर पाकर मनुष्य चाहे तो भलाई करे,चाहे बुराई, किंतु हे राजिया ! अंत में तो सब की एक ही गति होती है मृत्यु, चाहे राजा हो या रंक |
करै न लोप, वन केहर उनमत वसै |
करै न सबळा कोप, रंकां ऊपर राजिया ||
जंगल में उन्मत शेर बसता है,किंतु वह लोमडियों का समूल नाश नही करता, क्योंकि हे राजिया !
शक्तिशाली कभी गरीब पर कोप नही करते |
पहली हुवै न पाव, कोड़ मणा जिण में करै |
सुरतर तणौ सुभाव, रंक न जाणै राजिया ||
जहाँ पहले पाव भर अनाज भी नही होता था,वहां करोड़ों मन कर देता है | कल्पवृक्ष के स्वभाव को रंक व्यक्ति नही जान सकता | (उदारता और दयालुता तो स्वाभाविक गुण होते है )|
पाल तणौ परचार, किधौ आगम कांम रौ |
वरंसतां घण वार , रुकै न पाणी राजिया ||
पानी को रोकने के लिए पाल बाँधने का कार्य तो अग्रिम ही लाभदायक होता है | घने बरसते पानी को रोकना सम्भव नही, यह कार्य तो पहले ही होना आवयश्क है |
कांम न आवै कोय, करम धरम लिखिया किया |
घालो हींग घसोय, रुका विचाळै राजिया ||
जिस पन्ने पर लिखी हुयी कर्म-धर्म की बाते यदि कुछ काम नही आती तो हे राजिया ! उस रुक्के में भले ही हींग की पुडिया बांधो, क्योकि वह तो रद्दी कागज के समान है |
भाड़ जोख झक भेक, वारज में भेळा वसै |
इसकी भंवरो एक,रस की जांणे राजिया ||
बड़ा मेंडक जोंक मछली और दादुर सभी जल में कमल के अन्दर ही रहते है,किंतु कमल के रस का महत्व तो केवल रसिक भ्रमर ही जनता है ( गुण को गुणग्राही और रस को रसज्ञ ही जान सकता है |
डा.शक्तिदान कविया द्वारा लिखित पुस्तक "राजिया रा सौरठा" से साभार |
Khas khabar
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
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