जळहर एकी जाम, रेळै सब जग, राजिया ।।३।।
३ भावार्थ: कुंए का अरहट सारी उम्र चलता रहे तो भी इतना पानी नहीं निकाल सकता । दूसरी ओर, बादल एक ही पहर बरसकर इतना पानी बरसा देता है कि सारी पृथ्वी डूब जाय, (पानी से भर जाय)
अवनी रोग अनेक, ज्यांरा विध कीना जतन ।
इण परक्रिति री एक, रची न ओखद, राजिया ।। ४ ।।
४ भावार्थ: पृथ्वी पर अनेक बीमारियां हैं। विधाता ने उन सब के इलाज बनाये हैं, पर इस प्रकृति का मानव स्वभाव का इलाज कर सके, ऐसी एक भी दवा नहीं बनाई ।
अवसर पाय अनेक, भावैं कर भूंडी भली ।
अंत समै गत एक, राव-रंक री, राजिया ।। ५ ।।
५ भावार्थ : जीवन में भलाई और बुराई करने के अनेक अवसर मिलते हैं। उन्हें पाकर चाहे भलाई करो, चाहे बुराई: अंत में जाकर सबकी एक ही गति होती है-सबको मरना पड़ता है चाहे राजा हो, चाहे कंगाल हो ।
अवसर मांय अकाज, सामो बोल्यां सांपजै ।
करणों जे सिध काज, रीम न कीजै, राजिया ।। ६।।
६ भावार्थ: काम बनने का अवसर आने पर सामने बोलने से अनिष्ट हो जाता है, अर्थात् काम बिगड़ जाता है। अत: यदि काम को संपन्न करना हो तो सामने वाले के अनुचित वचन सुनकर भी क्रोध नहीं करना चाहिए, क्रोध को पीकर चुप रहना चाहिए।
असली री औलाद, खून करयां न करै खता ।
वाहै वद-वद वाद, रोढ़ दुलातां राजिया ।। ७।।
७ भावार्थ: शुद्ध कुल में उत्पन्न पुरूष अपराध करने पर भी बदले की भावना से अपकार नहीं करते, पर वर्णसंकर दोगले हठ कर-करके खच्चरों की भांति दुलत्तियां चलाते है अर्थात् बदले में हानि पहुंचाते हैं। खच्चर घोड़े और गधी के संयोग से पैदा होता है, इसलिए वर्णसंकर अर्थात् दोगला होता है ।
अहळा जाय उपाय, आछोड़ी करणी अवर ।
दुसट किरणी ही दाय, राजी हुवै न, राजिया ।। ८।।
७ भावार्थ: दुष्टों को प्रसन्न अनुकूल करने के लिए कितने ही प्रयत्न क्यों न किये जायं और उनके साथ कितनी ही भलाइयां क्यों न की जायं, वे किसी प्रकार प्रसन्न अनुकूल नहीं होते । किये हुए सारे उपाय व्यर्थ हो जाते है।
आगै मिलै न अन्न, रंक पछै पावै रिजक ।
मैला ज्यां रा मन्न, रहै सदा ही, राजिया ।। ९।।
९ भावार्थ: अनेक कंगाल मनुष्य धन के ही कंगाल नहीं होते, पर मन के भी कंगाल होते हैं। उनकी मनोवृत्ति बहुत ओछी होती है। ऐसी ओछी मनोवृत्ति वाले पुरूष भाज्यवशात् आगे चलकर बहुत धनी हो जाते हैं तब भी उनकी मनोवृत्ति में कोई अंतर नहीं पड़ता, वह वैसी ही ओछी रहती हैं - उनके मन का ओछापन नहीं जाता ।
आछा जुध अणपार, धार खगां सनमुख धसै ।
भोगी होई भरतारी, रसा जिके नर, राजिया ।। १०।।
१० भावार्थ: अनेक बड़े युद्धों में जो तलवारों की धारों के सामने बढ़ते हैं और निर्भीक होकर शस्त्रों के प्रहार झेलते हैं, वे ही मनुष्य पृथ्वी के स्वामी बनकर पृथ्वी को भोगते हैं ।
आछा हुव्र उपराव्र, हिया-फूट ठाकर हुव्र ।
जडिय़ा लोह-जड़ाव्र रतन न फाबै, राजिया ।। ११।।
११ भावार्थ: रत्न तभा शोभा देते हैं जब सोने में जड़े हों। इसी प्रकार गुणवान सरदार तभी शोभा देते हैं जब उनका अपने अनुरूप वैसे ही गुणवान ठाकुर स्वामी मिलें । यदि सरदार गुणवान हों और ठाकुर निर्बुद्धि हो तो वो शोभा नहीं देते, जैसे लोहे की जड़ाई में जड़े हुए रत्न शोभा नहीं देते ।
आछोड़ां ढिग आय, आछोड़ा भैळा हुवै ।
यूं सागर में जाय, रळै नदी-जळ, राजिया ।। १२।।
१२ भावार्थ: भले आदमियोंं रे पास भले आदमी एकत्र होते हैं, जैसे नदियों के जल समुद्र में जाकर मिलते हैं।
आछो मान अमाव मत-हीणा केई मिनख ।
पुटिया की ज्यों पांव राखै ऊपर, राजिया ।। १३।।
१३ भावार्थ: कुछ लोग ऐसे निर्बुद्धि होते हैं कि यदि उन्हें कभी बहुत अधिक ऊंचा सम्मान मिल जाता है तो वे अभियान से फूल जाते हैं और अपने को बहुत महत्व देने लगते हैं। वे ऐसा बरताव करने लगते हैं, मानों बहुत महत्वशाली पुरूष हों। पुटिया पक्षी की भांति वे भी अपने पैरों को ऊपर की और रखते हैं। आवै नहीं इलोळ